संतवाणी (8HIN13)
पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे ।
मैं तो मेरे नारायण की अपहिं हो गइ दासी रे ।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे ।।
बिष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे ।
‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे ।।
दरस बिन दूखण लागे नैन ।
जबसे तुम बिछुड़े प्रभु मोरे कबहुँ न पायो चैन ।।
सबद सुणत मेरी छतियाँ काँपै मीठे लागे बैन ।
बिरह कथा कासँू कहूँ सजनी बह गई करवत ऐन ।।
कल न परत पल-पल मग जोवत भई छमासी रैन ।
‘मीरा’ के प्रभु कब रे मिलोगे दुख मेटण सुख दैन ।।
संत मीराबाई
पुरतें निकसीं रघुबीर बधू,
धरि धीर दए मग में डग द्वै ।
झलकीं भरि भाल कनीं जलकी,
पुट सूखि गए मधुराधर वै ।
फिरि बूझति हैं, चलनो अब केतिक,
पर्नकुटी करिहौ कित ह्वै ?
तियकी लखि आतुरता पिय की,
अँखियॉं अति चारु चलीं जल च्वै ।।
जल को गए लक्खन, हैं लरिका,
परिखौ, पिय ! छाँह घरीक है ठाढ़े ।
पोंछि पसेउ बयारि करौं,
अरु पाँय पखारिहौं भूभुरि डाढ़े ।।
‘तुलसी’ रघुबीर प्रिया श्रम जानि कै,
बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े ।
जानकी नाह को नेहु लख्यो,
पुलक्यो तनु, बारि बिलोचन बाढ़े ।।
गोस्वामी तुलसीदास