सुनो और गुनो (8HIN5)
गो मैं हूँ मँझधार में आज बिना पतवार,
लेकिन कितनों को किया मैंने सागर पार ।
जब हो चारों ही तरफ घाेर घना अँधियार,
ऐसे में खद्योत भी पाते हैं सत्कार ।
टी. वी. ने हमपर किया यूँ छुप-छुपकर वार,
संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवार ।
दूरभाष का देश में जब से हुआ प्रचार,
तब से घर आते नहीं चिट्ठी-पत्री-तार ।
ज्ञानी हो फिर भी न कर दुर्जन संग निवास,
सर्प-सर्पहै, भले ही मणि हो उसके पास ।
भक्तों में कोई नहीं बड़ा सूर से नाम,
उसने आँखों के बिना देख लिए घनश्याम ।
तोड़ो, मसलो या कि तुम उसपर डालो धूल,
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल ।
पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय,
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय ।
हम कितना जीवित रहे इसका नहीं महत्त्व,
हम कैसे जीवित रहे यही तत्त्व अमरत्व ।
जीने को हमको मिले यद्यपि दिन दो-चार,
जिऍं मगर हम इस तरह हर दिन बनें हजार ।
अहंकार और प्रेम का, कभी न निभता साथ,
जैसे संग रहते नहीं संध्या और प्रभात ।
मात्र वंदना में नहीं फूल चढ़े दो-चार,
उसके चरणों में सदा चढ़ते शीश अपार ।
दिए तुझे मॉंगे बिना जिसने फल और छॉंह,
काट रहा है मूढ़ तू, उसी वृक्ष की बॉंह ।